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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 8 
शिष्यों को अध्यापन कराने के पश्चात शुक्राचार्य अपनी कुटी से बाहर निकले । अचानक उनकी निगाह अपने आश्रम के मुख्य दरवाजे पर गई तो वे हतप्रभ रह गये । महाराज वृषपर्वा महारानी और अपनी पुत्री शर्मिष्ठा के साथ रथ से उतर रहे थे । शुक्राचार्य ने अपनी पत्नी जयंती को आवाज दी । जयंती तुरंत दौड़कर आई और महारानी को देखकर अभिभूत हो गई । इतने में देवयानी भी आ गई । शुक्राचार्य जयंती और देवयानी को साथ लेकर महाराज, महारानी और शर्मिष्ठा की अगवानी करने के लिए मुख्य द्वार पर आ गये । महाराज वृषपर्वा और महारानी ने शुक्राचार्य और जयंती के चरण छूकर प्रणाम किया । 
"आपने क्यों कष्ट किया महाराज ? मुझे बुलवा लिया होता" शुक्राचार्य ने सकुचाते हुए कहा 
"आचार्य, आज महारानी और शर्मी की इच्छा हुई कि वे आपका आश्रम देखें । मुझे भी यह उचित जान पड़ा और आपके चरणों के दर्शन करने के लोभ से मैं स्वयं को रोक न सका । इसलिए इन दोनों को साथ लेकर आ गया" महाराज वृषपर्पा मुस्कुराते हुए बोले 
"आइए देवी , आपका इस छोटे से आश्रम में स्वागत है । आपने आज इस तुच्छ कुटिया को पावन कर दिया महारानी जी" जयंती भाव विह्वल होकर बोली । उन्होंने महारानी को अंक में भर लिया । 
"ऐसा न कहें देवि । आप तो स्वयं देवराज इन्द्र की पुत्री हैं । आपने तो स्वर्ग लोक का समस्त वैभव त्याग कर यह आश्रम चुना है । आपका यह आश्रम तो हमारे हजारों महलों से भी अधिक श्रेयस्कर और कीर्तिकर है । इस आश्रम के सम्मुख हमारे तुच्छ महल की उतनी ही महत्ता है जितनी सूर्य के सम्मुख एक जुगनू की होती है । आज इस आश्रम के दर्शन करके हम लोग कृतार्थ हो गये" । महारानी बहुत ही विनम्रता पूर्वक बोलीं । 

उधर शर्मिष्ठा और देवयानी दोनों एक दूसरे को देखकर रही थीं । शर्मिष्ठा देवयानी से थोड़ी छोटी थी । शर्मिष्ठा के वस्त्र और आभूषण देखकर देवयानी आश्चर्य चकित रह गई । कितने सुंदर और बहुमूल्य वस्त्र थे उसके । और देवयानी के वस्त्र तो कितने साधारण से थे । शर्मिष्ठा के अंग प्रत्यंग पर सोने, हीरे, मोती, माणिक्यों के सुंदर सुंदर आभूषण सजे हुए थे जो उसके राजसी वैभव की कहानी बयां कर रहे थे । देवयानी के गले में पुष्प हार झूल रहा था । बालों में मोगरे की बेणी थी । कलाइयों में गेंदे के फूलों को पिरोकर कंगन बना लिये थे जिन्हें पहन रखा था उसने । इसी प्रकार पैरों में कमल के पुष्पों की पाजेब पहन रखी थी । प्रकृति के उपहार को अपने तन पर धारण करके देवयानी का रूप और तेज और भी अधिक निखर गया था । एक तरफ राजसी वैभव का प्रदर्शन था तो दूसरी तरफ प्रकृति की अमूल्य धरोहर । दोनों की कोई तुलना नहीं थी । प्राकृतिक तेज के सम्मुख विलासिता धुंधली पड़ रही थी । 
"मेरा नाम देवयानी है और आपका नाम क्या है" ? देवयानी आगे बढ़कर शर्मिष्ठा से बोली 
"हमें हमारी मां शर्मिष्ठा कहकर बुलाती हैं" शर्मिष्ठा की आवाज में राजसी रौब छलक रहा था । 
"क्या आप हमारे साथ मित्रता करेंगी" ? 
"हां, हमारी भी कोई सखि नहीं है ना इसलिए हम भी एक सहेली ढूंढ रहे हैं । हम आपसे मित्रता अवश्य करेंगी" शर्मिष्ठा देवयानी के नजदीक आते हुए बोली । 
"देव, महाराज और महारानी जी को प्रणाम करो" जयंती ने देवयानी से कहा 
"प्रणाम महाराज और महारानी जी" । देवयानी ने महाराज और महारानी को प्रणाम किया । 
"शर्मी, आप भी आचार्य और आचार्य पत्नी को प्रणाम करो बेटा । वे हमारे पूजनीय हैं । प्रत्येक आचार्य हमारे पूजनीय हैं और ये आचार्य तो दैत्यों के गुरू भी हैं । इसलिए आचार्य शुक्र हम सबके सदैव पूजनीय हैं और रहेंगे । गुरु पत्नी और गुरू पुत्री भी हमारे लिए उतनी ही पूजनीय हैं जितने आचार्य शुक्र" । 
शर्मिष्ठा ने शुक्राचार्य और जयंती के साथ साथ देवयानी को भी प्रणाम किया । देवयानी उसे रोकते हुए बोली 
"अरे नहीं नहीं । हम तो सखियां हैं ना ? सखियों में ये औपचारिकता नहीं होती है इसलिए आज से हम लोग ये औपचारिक अभिवादन नहीं करेंगे । ठीक है ना" ? 
देव की बात पर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए । महाराज ने उन्हें गोदी में उठा लिया और बोले "इतनी सी उम्र में कितना ज्ञान है आपको ? आप तो पूरी विदुषी हैं" फिर शुक्राचार्य की ओर देखकर बोले "जिसके पिता शुक्राचार्य और माता देवराज इंद्र की पुत्री जयंती जैसी होंगी, वह विदुषी, संस्कारी न होगी तो फिर और कौन होगी" ? महाराज की बात पर सभी लोग हंस दिये । शुक्राचार्य उन सबको लेकर अपनी कुटिया पर आ गये । 
जैसी कि ऋषियों की कुटियाऐं साधारण सी , विपन्नताओं की पोटली अपने सीने से लगाए हुए होती हैं , उसी तरह शुक्राचार्य की कुटिया भी किसी गरीब ब्राह्मण की पत्नी की तरह नजर आ रही थी । अभावों के वस्त्रों में भी ज्ञान का तेज जिस तरह झलक कर बाहर आ जाता है उसी तरह इस कुटिया में भी शुक्राचार्य के तप, ज्ञान, बुद्धि और गुरू का तेज दिखाई दे रहा था । शुक्राचार्य ने उन सबको उचित आसनों पर बैठा दिया था और जयंती उनके अल्पाहार की व्यवस्था करने लग गई । इतने में देवयानी ने शुक्राचार्य से कहा 
"तात, यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं शर्मिष्ठा को अपना आश्रम दिखा दूं" ? 
"अवश्य दिखाओ बेटी । पर पहले कुछ जलपान तो कर लो" ? शुक्राचार्य ने कहा । 

शर्मिष्ठा को जलपान में कोई रुचि नहीं थी और वह देवयानी के साथ दौड़कर बाहर भाग गई । दोनों सहेलियां दौड़कर फुलवारी में आ गई । फुलवारी में अनेक प्रकार के पौधे लगे हुए थे जिनमें नाना भांति के फूल खिल रहे थे । गुलाब, गुड़हल, कनेर, मोगरा, चम्पा , टेसू और ना जाने कितने प्रकार के फूल थे वहां । देवयानी एक एक करके सब फूलों के बारे में बताती जा रही थी । उसे गुलाब बहुत पसंद थे । गुलाब के पौधों की देखभाल वह स्वयं करती थी इसलिए उसने गुलाब की सारी किस्मों का वर्णन करते हुए एक एक कर सारे गुलाब के फूल दिखाये । देवयानी ने एक लाल सुर्ख गुलाब का फूल तोड़ा और उसे शर्मिष्ठा के बालों में लगाते हुए बोली "एक सहेली की ओर से सप्रेम भेंट" 
"धन्यवाद । और मेरी तरफ से भी यह एक तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिए देव" । शर्मिष्ठा ने अपने बालों में से सोने की क्लिप निकाल कर देवयानी के बालों में लगा दी । यह देखकर देवयानी प्रसन्न हो गई । 

फुलवारी से जैसे ही वे बाहर निकली तैसे ही खरगोश के नन्हे नन्हे बच्चे देवयानी और शर्मिष्ठा के पैरों से लिपट गये । शर्मिष्ठा ने पहली बार देखा था खरगोश के बच्चों को , इसलिए वह डर गई थी । 
"डरो मत शर्मि । ये खरगोश हैं । ये काटते नहीं हैं बस चाटते हैं" और मुस्कुराती हुई देवयानी उन्हें अपने हाथों से रोटी खिलाने लगी । उसे देखकर शर्मिष्ठा का भय भी दूर हो गया और वह भी उनके साथ खेलने लगी । इतने में उड़ता हुआ एक तोता आ गया और बोला "राम राम" । शर्मिष्ठा स्तब्ध रह गई और पूछ बैठी "ये तोता बोलता भी है क्या" ? 
"ये केवल राम राम ही नहीं बोलता , अपितु वेद पुराणों के श्लोक भी सुना सकता है" हंसते हुए देवयानी बोली । 
"तो इसे बोलो कि यह कुछ श्लोक सुनाए जिससे हम भी देख सकें इसकी प्रतिभा को" शर्मिष्ठा को विश्वास नहीं हो रहा था । देवयानी ने उस तोते से कहा 
"हे शुकदेव महाराज । मेरी सखी शर्मिष्ठा आपकी प्रतिभा की परीक्षा लेना चाहती हैं । अत: अपने ज्ञान प्रकाश की ज्योति जलाकर इनका संशय दूर करो तात । बृहदारण्यक उपनिषद का कोई एक श्लोक सुना दो ना" 

तोते ने एक मिनट का समय भी नहीं लिया और तुरंत गाने लगा 
ॐ असतो माम् सद्गमय 
तमसो माम् ज्योतिर्गमय 
मृत्योर्माम् अमृतं गमय
ॐ शांति शांति शांति ।।

तोते के द्वारा इस प्रकार श्लोक सुनाने से शर्मिष्ठा बहुत प्रसन्न हुई और बोली "शुकदेव महाराज जी ने अभी क्या सुनाया था और इसका अर्थ क्या है ? मुझे विस्तार से बताओ, सखि" । 
"यह बृहदारण्यक उपनिषद का श्लोक संख्या 1.3.28 है । यह सोम यज्ञ की स्तुति में यजमान द्वारा गाया जाता है । इसका अर्थ है 'मुझे असत्य से सत्य की ओर लेकर जा । अंधकार से उजाले की ओर लेकर जा और मृत्यु से अमरता की ओर लेकर जा' एक गुरू अपने शिष्यों को सत्य का ज्ञान कराता है । गुरू अपने शिष्यों को अंधकार रूपी अज्ञान से प्रकाश रूपी उजाले की ओर लेकर जाता है और अपने शिष्यों को समत्व बुद्धि योग द्वारा अमरता की ओर ले जाता है । इस श्लोक में एक गुरू की शक्ति का वर्णन किया गया है इसलिए यह श्लोक सभी शिक्षण संस्थाओं के द्वार या दीवारों पर लिखा होता है । कुछ समझ में आया , शर्मि" ? देवयानी ने बड़े प्रेम से शर्मिष्ठा से पूछा 
"आपने इतने अच्छे से समझाया है कि मुझे ही नहीं कुटिया की दीवारों को भी समझ में आ गया होगा । सच में आप बहुत बुद्धिमान हैं देव" । शर्मिष्ठा देवयानी की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए बोली । 
"ये तो कुछ नहीं है शर्मि, मैं तो तात् के साथ वेदों को पढती भी हूं" 

वे अभी और भी बातें करतीं किन्तु उसी समय जयंती की आवाज सुनाई दी "देव , शर्मि आ जाओ । अल्पाहार तैयार हो गया है । आपकी पसंद का हलवा बना है । शर्मि को भी साथ ले आओ बेटा" । देवयानी "अभी आई माते" कहकर शर्मिष्ठा को साथ लेकर देवयानी कक्ष के अंदर आ गई । 

क्रमश : 

श्री हरि 
30.4.23 

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